[ तृतीय संस्करण : मार्च, २००६ ई० ]
प्रो० डॉ० माहेश्वरी सिंह 'महेश' एम०ए०, पी-एच०डी०(लंदन)
श्रीउदितनारायण चौधरी,
श्रीमहावीर 'संतसेवी',
प्रोफेसर श्रीविश्वानंद, एम०ए०, बी०एल० प्रोफेसर
श्रीमहेश्वर प्रसाद सिंह, एम०ए०
श्रीआनन्द
अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा
महर्षि मेँहीँ - अभिनन्दन-ग्रंथ प्रकाशन-समिति महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर-३ (बिहार)
(सर्वाधिकार प्रकाशक द्वारा सुरक्षित)
हमें क्या ज्ञात कि आत्मज्ञ ऋषियों और संतों के अभिनंदन किस भाँति किए जाते हैं ? हमारी बहिर्मुखी इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और चेतन अपने बिखरे और विकीर्णित भावों से उनकी अर्चना करने में अवश्य ही असमर्थ हैं, परंतु ये सारी क्षर-विनाशशील या परिवर्तनशील सत्ताएँ भी तो उन्हीं परम सत्ता से अनुप्राणित हैं; इसीलिए हम अपने को उनका आत्मज मानकर अपने तुच्छातितुच्छ भाव-पुष्पों से उनकी अर्चना करने का साहस कर रहे हैं और उन्होंने आश्वासन दे रखा है कि भक्ति-भाव से फल, फूल, पत्ता और जल लेकर भी जो मेरी अर्चना करते हैं, उसे मैं ग्रहण कर लेता हूँ। इसे ही हमने अपना पाथेय बनाकर ‘कृपासिंधु नर रूप हरि’ के रूप में अवतरित पूज्यपाद महर्षिजी का अभिनंदन, उन्हीं के जीवनवृत्तों, प्रवचनों, उनकी कृतियों की आलोचनाओं एवं सिद्धांत-विवेचनों तथा युग-युग एवं देश-विदेश या विश्व के संतों के विचारों से सामंजस्य एवं एकता का दिग्दर्शन कराने; अनेक सत्पुरुषों द्वारा उनके प्रति अभिव्यक्त किए गए पुनीत भावनाओं, विचारों एवं अनुभूतियों, संतमत-साहित्य के इतिहासों आदि-आदि के द्वारा कर रहे हैं । अर्चना के इन उपादानों में अवश्य ही अनेक दोष हैं, और होंगे; क्योंकि हमारी लाख सावधानियों के रहते हुए भी इसमें मुद्रण, भाषा और विचार संबंधी त्रुटियाँ आ ही गई हैं । हमारे अंधकारावृत्त मानस और बौद्धिक चेतना, उनके निर्दिष्ट और उत्प्रेरित प्रकाशों को परिशुद्ध और पूर्णरूपेण ग्रहण करने में स्वाभाविक रूप से असमर्थ हैं; इसी कारण अंधकार की शक्तियाँ हमारे नहीं चाहने पर भी उनमें दोष और त्रुटियों का संनिवेश करा ही देती हैं। इन त्रुटियों के लिए क्षमा-याचना के अतिरिक्त और कोई शब्द, भाव या मार्ग हमारी जानकारी में नहीं आ रहे। अतः पूजा और अर्चना की जैसी भी सामग्री बन सकी हैं उसे ही भक्ति और श्रद्धा सहित हृदयांजलि में भर कर हम लोक पावनकारी पादपदमों में समर्पित कर रहे हैं । हमें विश्वास है कि हमारा यह हार्दिक अभिनंदन स्वीकार कर हमारे यानी मानव मात्र के कल्याण के लिए अध्यात्म गगन की दिव्य ज्योति को इस पार्थिव जगत में विकीर्णित करने की कृपा की जाएगी।
अभिनंदन के उपादानों को संग्रह करने-कराने में हजारों-हजार सदात्माओं के प्रत्यक्ष और परोक्ष सहयोग एवं सहायता रही है। हम उनके नामों का उल्लेख नहीं कर एक ही साथ समान आदर और प्रेम से सभी को धन्यवाद देते हैं और प्रणाम करते हैं।
विनीत
माहेश्वरी सिंह ‘महेश
एम॰ ए॰, पी-एच॰ डी॰ (लंदन)
सन् १९५१ ईस्वी की फरवरी में अखिल भारतीय संतमत-सत्संग के अधिवेशन (झालीघाट) में इस महासभा के निर्वाचित उपाध्यक्ष डॉक्टर रामप्रसादजी ‘वैद्यभूषण’ ने महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज को ‘अभिनंदन-ग्रंथ’ समर्पित करने का प्रस्ताव उपस्थित किया था, जिसे सभी सत्संगप्रेमियों ने उल्लास भरी उदारता से स्वीकार किया था। अब आवश्यकता हुई कि महर्षिजी का जीवनवृत्त प्रस्तुत करने के लिए कोई व्यक्ति महीनों उनके साथ रहकर उसे लिखे। कई वर्ष बीत गए। किसी त्यागी महानुभाव को यह कार्य संपन्न करने के लिए आगे नहीं बढ़ते देखकर शांति-संदेश के व्यवस्थापक एवं संपादक, माध्यमिक विद्यालय झंडापुर के प्रधानाध्यापक तथा भागलपुर जिला शिक्षकसंघ के अध्यक्ष श्री उदितनारायण चौधरीजी ने सारे कार्यों को तिलांजलि देकर छह-सात महीने लगातार उनके साथ रहकर जीवन-चरित्र लिखा। जीवन-वृत्त तैयार हो जाने के उपरांत महर्षि मेँहीँ -अभिनन्दन-ग्रंथ-समिति के पास यह उपस्थित किया गया, परंतु इसके लिए और उपादानों की भी आवश्यकता थी, जिन्हें योग्य विप्रों (विद्वानों) से लिखाकर पुनः उन्हें सुसज्जित कर मुद्रित किया जा सके और पुनः मुद्रणकाल में भी कोई वहाँ उपस्थित रह शोध्यपत्र (प्रूफ) देखने का कार्य करे।
योग्य व्यक्तियों के अभाव में पुनः कई वर्षों तक यह कार्य स्थगित रहा। पुनः परम धीर, वीर, उत्साही एवं अति पुरुषार्थी श्री उदितनारायण चौधरीजी ने ही इस पवित्र कार्य को सुसंपन्न करने का बीड़ा उठाया और उतने सारे उत्तरदायित्वों को निभाते हुए भी सन् १९६१ ईस्वी की वसंतपंचमी के नवोल्लास में इसे प्रकाशित कर महर्षि मेँहीँ- अभिनंदन-ग्रंथ-समिति के समक्ष उपस्थित कर दिया। उन्होंने अक्लांत परिश्रम सहित उत्तम उपादानों का संग्रह कर उन्हें प्रोफेसर डॉक्टर माहेश्वरी सिंह, ‘महेश’, एम॰ ए॰, पी-एच॰ डी॰ (लंदन) को संशोधन एवं परिमार्जन के लिए दिया। ‘विद्या ददाति विनयं’ के साक्षात् अवतार, समादरणीय ‘महेशजी’ ने अपने व्यस्त उत्तरदायित्वों में से समय निकाल-निकालकर इसे अभिरूपित किया।
समादर योग्य श्री महावीर ‘संतसेवीजी’, प्रोफेसर विश्वानंदजी, एम॰ए॰, बी॰एल॰ तथा प्रोफेसर महेश्वर प्रसाद सिंहजी, एम॰ए॰ ने भी समय-समय पर सहयोग देकर इस कठिन या हमारे लिए दुर्लभ कार्य को पूर्ण किया है। ये सभी सदात्मा हमारे परम आदरणीय हैं। हम इन सभी महानुभावों का अति कृतज्ञ भाव से सम्मान और समादर करते हुए अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा की ओर से इन्हें हार्दिक धन्यवाद देते हैं। शोध्य-पत्र देखने तथा अन्य आवश्यक सहयोग देकर श्री जगदीश प्रसाद बाजोरियाजी ने मुद्रणकार्य में जो सहायता की है, इसके लिए उन्हें भी सस्नेह धन्यवाद देते हैं।
इन सदात्माओं के अतिरिक्त और भी अनेक प्रेमीजनों ने प्रगट और अप्रगट रूप से सहायता देकर इसे पूर्ण बनाया है। हम उनके प्रति धन्यवाद ज्ञापन कर अति पुलकित हैं। इस पवित्र ग्रंथ के संबंध में हमारी कोई दावी नहीं है कि यह महामहिमामंडित, परम संत, वेदकाल से लेकर आजतक के सभी संत-महर्षियों की वाणियों को एक ही सूत्र में गूँथकर माला के रूप में उपस्थित करनेवाले पूज्यपाद महर्षि मेँहीँ परमहंसजी महाराज के लिए सर्वथा उपयुक्त एवं परिपूर्ण है। हम तो केवल भगवान कृष्ण की वाणी के सहारे ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं’ लेकर सेवा में उपस्थित हो सके हैं। इन पत्र, पुष्प, फल और जल में भी अपनी कोई विशेषता नहीं है। ये भी तो अपने प्रच्छन्न कलुष-कल्मषों को इन पावन पाद-पद्मों में पड़कर निर्मल बनने की ही अभिवांछा कर रहे हैं। मदिरा को भी जब गंगा की पावन धारा स्वीकार कर अपने में एकीभूत कर लेती है, तो वह भी पवित्र जल के रूप में पूजा का उपादान बन जाती है। इसी भावना में निरत यह अभिनंदन-ग्रंथ प्रार्थनापूर्वक प्रतीक्षा कर रहा है।
वसंत पंचमी
संवत् २०१७ विक्रमीय
महर्षि मेँहीँ आश्रम
कुप्पाघाट, भागलपुर-३
विनय-भाव-निरत
लक्ष्मी प्रसाद चौधरी ‘विशारद’
प्रधानमंत्री
अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा
त्रिलोक और त्रिकाल में संत से पूज्य कौन हो सकते हैं ! देवों, महापुरुषों और पूज्यों के द्वारा पूजित होनेवाले संत ही तो हैं। वे उत्कृष्ट दैविक गुणों से सुशोभित साक्षात ब्रह्म होते हैं। मानव शरीर में निवास करते हुए भी मानवीय क्षुद्रता उन्हें स्पर्श नहीं करती। श्री मदाद्य शंकराचार्य का वचन है –
सम्पूर्ण जगदेव नन्दनवनं सर्वेऽपि कल्पद्रुमा
गांगं वारि समस्तवारिनिवहाः पुण्याः समस्ताः क्रियाः ।
वाचः प्राकृतसंस्कृताः श्रुतिशिरो वाराणसी मेदिनी
सर्वावस्थितिरस्य वस्तुविषया दृष्टे परब्रह्मणि ।।
जिन संतों ने परब्रह्म का साक्षात्कार कर लिया है, उनके लिए सारा जगत् नन्दनवन है, सब वृक्ष कल्पवृक्ष है, सब जल गंगाजल है, उनकी सारी क्रियाएँ पवित्र हैं, उनकी वाणी प्राकृत हो या संस्कृत वह वेद का सार है, उनके लिए सारी पृथ्वी काशी है और उनकी सभी चेष्टाएँ परमात्ममयी हैं।
इन्हीं भावों को अक्षरशः चरितार्थ करनेवाले संत थे महर्षि मेँहीँ परमहंस, जिनका तेज आज लाखों नर-नारियों के हृदय में ज्ञान-प्रदीप प्रज्ज्वलित कर रहा है। अपने जीवन में सत्यधर्म को सर्वोपरि स्थान देते हुए इन्होंने मनसा, वाचा, कर्मणा सत्य के आचरण को शांति और कल्याण का मार्ग बतलाया। महाभारत का निम्नांकित श्लोक इन्हीं विचारों को सम्पुष्ट करता दीखता है।
सत्यं सत्सु सदा धर्मः सत्यं धर्मः सनातनः।।
सत्यमेव नमस्येत सत्यं हि परमा गतिः।।
सदा सत्य ही संतों का धर्म है, सत्य ही सनातन धर्म है, सन्तजन सत्य को ही नमस्कार करते हैं, सत्य ही परम गति (आश्रय) है। ऐसे ही संतों की महिमा प्रतिष्ठित करते हए भगवान श्री राम ने शवरी से कहा था –
सतां संगतिरेवात्र साधनं प्रथमं स्मृतम।
(अध्यात्म रामायण ३।१०। २२)
अर्थात् भक्ति के सब साधनों में श्रेष्ठ साधन संतों का संग है। एक प्रश्न उपस्थित होता है कि ऐसे संत यदि सगुण रूप में हमारे बीच उपस्थित न हों तो उनके संग का लाभ हम किस प्रकार ले सकते हैं ? उत्तर होगा कि उनके लिखित जीवन-दर्शन और उपदेश का परिज्ञान प्राप्त कर यदि हम उनका अनुसरण करें तो हमें उनके संग का वास्तविक लाभ मिल सकता है।
इसी पुनीत लक्ष्य तक पहुँचाने हेतु सत्साहित्यों की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में १९६१ ईस्वी में महर्षि मेँहीँ अभिनंदन-ग्रंथ का प्रकाशन किया गया था। बाद के वर्षों में जब इसकी सभी प्रतियाँ बिक गईं तो इसके पुनर्प्रकाशन की माँग होने लगी। किन्तु अनेक कारणों से लंबे अन्तराल तक इस शुभ कार्य को सम्पन्न नहीं किया जा सका। आज अखिल भारतीय संतमत-सत्संग महासभा की ओर से इसके द्वितीय संस्करण को प्रकाशित कर हमें अपार हर्ष हो रहा है और विश्वास है कि इसके प्रकाशन से भक्तों की चिर अभिलाषा पूरी होगी। इस गुरुतर दायित्व के निर्वहण में महासभा के पूर्व महामंत्री श्री गजानन्दजी तुलस्यान की दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ अनेक आश्रमवासियों का भी श्रम सराहनीय है। हमारी कामना है कि इस स्तुत्य कार्य के सम्पादन में सहयोग करनेवाले सभी सज्जनों पर पूज्यपाद गुरुदेव की असीम कृपा बनी रहे।
२६ मार्च, २००२ ईस्वी
वसन्तोत्सव
आशुतोष
सह सम्पादक, शांति-सन्देश
महर्षि मेँहीँ आश्रम, कुप्पाघाट, भागलपुर-३
01. स्वामी स्वरूपानन्द जी
02. स्वामी रामदास 'रूपेश' जी
03. ज्ञानी कुमार चौधरी, बनमनखी, पूर्णियाँ (ग्रंथ निर्माण में पूर्णत: समर्पित)
04. श्रद्धेय बुद्धिनाथ मिस्त्री, मोटंगा, पंजवारा, बाँका
05. रवि कुमार चौधरी, बनमनखी, पूर्णियाँ
06. राजराम मोहन सिन्हा, बानियाँडीह, भागलपुर